लोगों की राय

गीता प्रेस, गोरखपुर >> भगवान कैसे मिलें

भगवान कैसे मिलें

जयदयाल गोयन्दका

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :126
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1061
आईएसबीएन :00000

Like this Hindi book 6 पाठकों को प्रिय

243 पाठक हैं

प्रस्तुत है भक्त को भगवान कैसे मिलें....

निष्कामप्रेमसे भगवान् शीघ्र मिलते हैं

भगवान्में श्रद्धा और प्रेम होनेसे भगवान् बहुत शीघ्र प्राप्त होते हैं। श्रद्धा और भक्तिके लिये भगवान्से प्रार्थना करो। श्रद्धापूर्वक भगवान्का भजन करनेपर भगवान् बहुत शीघ्र मिलते हैं। श्रद्धा और प्रेमके योग्य चार पात्र हैं-परमात्मा, महापुरुष, परलोक एवं शास्त्र, उनमें सबसे बढ़कर परमात्मा हैं। परमात्मामें श्रद्धा-प्रेम होनेके लिये परमात्मासे ही प्रार्थना करनी चाहिये। परमात्माकी नित्य स्मृति और उसीमें श्रद्धा और प्रेम होना चाहिये।

सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः।।
(गीता १७।३)

हे भारत! सभी मनुष्योंकी श्रद्धा उनके अन्त:करणके अनुरूप होती है। यह पुरुष श्रद्धामय है, इसलिये जो पुरुष जैसी श्रद्धावाला है वह स्वयं भी वही है।

भगवान्ने कहा है-

बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः।।
(गीता ७।१९)

बहुत जन्मोंके अन्तके जन्ममें तत्त्वज्ञानको प्राप्त पुरुष, सब कुछ वासुदेव ही है-इस प्रकार मुझको भजता है, वह महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है।

भक्तिमार्गमें यह बात उत्तम है कि भगवान्का सेवक बनकर भक्ति करे, भगवान् कहते हैं-

समदरसी मोहि कह सब कोऊ। सेवक प्रिय अनन्य गति सोऊ।।

गीतामें भी यही बात है-

समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्।।
(गीता ९।२९)

मैं सब भूतोंमें समभावसे व्यापक हूँ न कोई मेरा अप्रिय है और न प्रिय है; परन्तु जो भक्त मुझको प्रेमसे भजते हैं, वे मुझमें हैं और मैं भी उनमें प्रत्यक्ष प्रकट हूँ।

भगवान् निराकार रूपसे सब जगह हैं, पर प्रेमसे प्रकट होते हैं। शंकर भगवान् कहते हैं-

हरि ब्यापक सर्बत्र समाना। प्रेम तें प्रगट होहि में जाना।।

बालकाण्डमें जब देवता इकट्ठे हुए तब शिवजीने अपना यह निर्णय बताया कि जिनका भगवान्में प्रेम है, उनके संगसे परमात्मा मिलते हैं। अच्छे पुरुषोंके संगसे भगवान्में प्रेम होता है। इनमें सत्संग सबसे बढ़कर है, दूसरा भगवान्के नामका जप है।

एकान्तमें बैठकर रात-दिन नामजप, शास्त्राध्ययन और स्वरूपका मनन करे। ये स्वतन्त्र चीज हैं पर सत्संग स्वतन्त्र चीज नहीं है। यह भगवान्की कृपासे ही मिलता है। कलियुगमें काम, क्रोध, मद, लोभ ताण्डव नृत्य कर रहे हैं-

झूठइ लेना झूठड़ देना। झूठइ भोजन झूठ चबेना॥

भगवान् कहते हैं मुझे झूठ, कपट, छल, छिद्र अच्छे नहीं लगते। ईश्वरका दर्शन न तो पढ़ाईसे होता है, न पूजासे होता है। यह शरीर तो हाड़-मांसका पुतला है, यदि शास्त्रोंके अनुसार, गीताके वचनोके अनुसार आचरण करो तो परमात्मा प्राप्त हो सकते हैं। हम रुपया कमानेके लिये जितना परिश्रम करते हैं, कम-से-कम उतना परिश्रम तो भगवान्के लिये करना चाहिये।

इस दुनियामें लक्ष्मीके दास अधिक हैं भगवान्के नहीं। भगवान् और लक्ष्मीमें वाद-विवादपर लक्ष्मीने कहा दास तो मेरे ही अधिक होंगे, गिन लें। सतयुगमें, द्वापर में सब भगवान् के भक्त थे, लक्ष्मी उनके पैरोंपर आ-आकर पड़ती थीं। ईश्वरकी भक्तिसे उनके आचरण अपने-आप शुद्ध हो जाते हैं। दु:ख-क्लेश पासमें नहीं आते और लक्ष्मी उनके पैरोंपर आकर पड़ती हैं।

खल कामादि निकट नहिं जाहीं। बसड़ भगति जाके उर माहीं।।
गरल सुधासम अरि हित होई। तेहि मनि बिनु सुख पावन कोई।।
राम भगति मनि उर बस जाकें। दुख लवलेस न सपनेहुँ ताकें।।

जिनके हृदयमें भक्ति रहती है, उनके लिये विष भी अमृत हो जायगा। लौकिक ऐश्वर्य धूलके समान दीखने लगेगा। काम, क्रोध, मद, लोभ, क्लेश आदि भक्तिरूपी मणिके पास नहीं जा सकते, जैसे अन्धकार सूर्यके पास नहीं जा सकता। भक्तिरूपी मणिके प्रकाशके सामने ये बिलकुल नहीं जा सकते। इसलिये ईश्वरकी भक्तिको मनमें बसाना चाहिये। ईश्वरकी भक्तिकी बड़ी भारी महिमा गायी गयी है। जो सच्चा प्रेमी है उसके सब वस्तु हस्तगत हैं, उसे कुछ भी दुर्लभ नहीं है। उसीको भगवान्ने गीतामें ज्ञानी भक्त कहा है। आनन्द भक्तिवाला ज्ञानी श्रेष्ठ है। भगवान् कहते हैं-ज्ञानीको मैं अतिशय प्यारा हूँ, ज्ञानी मुझको अतिशय प्यारा है।

तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभत्तिर्विशिष्यते।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः।।
(गीता ७।१७)

भक्त-ज्ञानी ऐसा होना चाहिये कि भगवान्में पूर्ण प्रेम हो, सब कंचन और कामिनीसे प्रेम करते हैं।

जैसा हेत हरामसे वैसा हरिसे होय।
चला जाय वैकुण्ठको पला न पकड़े कोय।।
कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम।
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम॥

भगवान्में इस प्रकारका प्रेम होना चाहिये। एक ओर रुपया हो, एक ओर भगवान् तो भगवान्के सामने रुपयोंको धूलके समान समझे।

एक भगवान्का निष्काम प्रेमी था, लाखों रुपये पास थे, रातदिन भगवान्का नाम जपता था। लड़केको प्लेगकी बीमारी हो दिया। किसीने बताया कि अमुक ऋषिकी धूनीकी राख देनेसे लड़का ठीक हो सकता है उसका एक यही उपाय है। लोग उन ऋषिके पास गये, धूनीकी राख माँगी तो मुनि हँसे, मुनिने कहा कि क्या सेठजीने हमारे पास भेजा है, बोले हाँ। ऋषिने कहा-तुम जाकर उनसे कह दो कि सेठजी अपनी माला उसपर रख दें तो लड़का ठीक हो जायगा। सेठजीने कहा-ऋषिजीका मन नहीं है। ऋषि बोले-आपका भी तो नहीं है। थोड़ी देरमें लड़का मर गया, लोग बोले-'महाराज मर गया तो बोले ले जाओ। संसारसे प्रेम हटाना चाहिये एवं भगवान्से प्रेम लगाना चाहिये। भगवान् कहते हैं कि मैं अनन्यभत्तिसे मिलता हूँ। न वेदसे, न यज्ञसे, न ज्ञानसे, अनन्य-भक्ति-प्रेमसे मैं मिल सकता हूँ। केवल मात्र प्रेम होनेसे मैं मिलता हूँ। प्रेम बिखरा हुआ है। यानी शरीरमें, मानमें, रुपयेमें है, इन सबको ठोकर मारकर मन भगवान्में लगाओ। भगवान्का मूल्य आत्मा है। अगर आप भगवान्को खरीदना चाहते हों तो यह आपकी मूर्खता है। भगवान् रुपये नहीं देखते, प्रेम देखते हैं। जो रुपयेके घमण्डमें आ जाता है उसका घमण्ड भगवान् चूर कर देते हैं। मूल्य तो पारसका भी नहीं हो सकता, फिर भगवान्का कैसे हो सकता है। भगवान्की प्राप्ति न बुद्धिसे, न तर्कसे, न बलसे होती है। पूरा न्योछावर होनेपर, संसारसे वैराग्य होनेपर भगवान् मिल सकते हैं। जो कुछ खाने-पहननेको मिल गया आनन्द, जहाँ कहीं भी पड़ गये नींद आ गयी, रात बितानी है और क्या चाहिये। अपने शरीरका निर्वाह कम-से-कम पैसोंमें करना चाहिये। बाकीका पैसा बचाकर दु:खी-गरीबकी सेवा करनी चाहिये।

महीरम्या शय्या विपुलमुष्पधानं भुजलता
वितानं चाकाशं व्यञ्जनमनुकूलोऽयमनिलः।
स्फुरददीपश्चन्द्रो विरतिवनितासङ्गमुदितः
सुखं शान्तश्शेते मुनिरतनुभूतिर्नूप इव।।

जिसकी सुन्दर शय्या भूमि, तकिया भुजा, आकाश चँदोहा, अनुकूल वायु पंखा, चन्द्रमा ही प्रकाशमान दीपक है और विरक्ति रूपी स्त्रीका संग है, वही मुनि ऐश्वर्यवान् राजाके समान सुखशान्तिपूर्वक शयन करता है।

जैसे दधीचि ऋषि ध्यानमें मस्त थे। इन्द्र आकर बैठ गये, नेत्र खुलनेपर प्रार्थना की कि आपकी तरह मेरा भी ध्यान हो। तब ऋषिने जवाब दिया कि जिस तरह तू इन्द्रासनपर बैठकर इन्द्राणीको भोगता है, उसी प्रकार एक कुत्ता और सुअर भी भोगता है। हमें तमाम ऐश्वर्य पेशाबकी तरह मानना चाहिये। इसी तरह त्रिलोकीके ऐश्वर्यकी ओरसे वृत्ति उठ जानी चाहिये। जिस तरह मल, मूत्रसे वृत्ति उठ जाती है, इन सबसे तो दूर ही रहना चाहिये। भगवान् कहते हैं यह मूर्ख मेरे स्वरूपको क्या जाने, यह तो मैलेमें ही रम रहा है। इनमें मूर्ख ही रमते हैं, विवेकी नहीं। जबतक आप ऐश्वर्यमें लिप्स हैं तबतक आप ईश्वरको नहीं पा सकते। शरीरके निर्वाहके लिये जो कुछ रूखा-सूखा मिल जाय वही पर्याप्त है।

कबिरा मन तो एक है चाहे जहाँ लगाय।
चाहे हरिकी भक्ति कर चाहे विषय लगाय।।

भगवान् कहते हैं जो मेरे बिना जी नहीं सकता, जो सारी इन्द्रियोंसे मुझमें रमण करता है, वही भक्त है।

तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते।।
(गीता १०।१०)

जो निरन्तर मेरे में लगे हुए हैं और जो मुझे भजते हैं, उन्हें मैं वह दिव्य ज्ञान देता हूँ जिससे उनको शीघ्र ही मेरी प्राप्ति हो जाती है।

 

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. भजन-ध्यान ही सार है
  2. श्रद्धाका महत्त्व
  3. भगवत्प्रेम की विशेषता
  4. अन्तकालकी स्मृति तथा भगवत्प्रेमका महत्त्व
  5. भगवान् शीघ्रातिशीघ्र कैसे मिलें?
  6. अनन्यभक्ति
  7. मेरा सिद्धान्त तथा व्यवहार
  8. निष्कामप्रेमसे भगवान् शीघ्र मिलते हैं
  9. भक्तिकी आवश्यकता
  10. हर समय आनन्द में मुग्ध रहें
  11. महात्माकी पहचान
  12. भगवान्की भक्ति करें
  13. भगवान् कैसे पकड़े जायँ?
  14. केवल भगवान्की आज्ञाका पालन या स्मरणसे कल्याण
  15. सर्वत्र आनन्दका अनुभव करें
  16. भगवान् वशमें कैसे हों?
  17. दयाका रहस्य समझने मात्र से मुक्ति
  18. मन परमात्माका चिन्तन करता रहे
  19. संन्यासीका जीवन
  20. अपने पिताजीकी बातें
  21. उद्धारका सरल उपाय-शरणागति
  22. अमृत-कण
  23. महापुरुषों की महिमा तथा वैराग्य का महत्त्व
  24. प्रारब्ध भोगनेसे ही नष्ट होता है
  25. जैसी भावना, तैसा फल
  26. भवरोग की औषधि भगवद्भजन

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book